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"दुष्ट दुशासन, वंश विनाशन, खिंच रहा मेरे बदन का वासन (साडी), नग्न करन की मन म धरि! आओ तो आओ हरी" कुछ ऐसी ही विनती की थी द्रुपद सुता ने भगवान् देवकीनंदन को अपनी लाज बचाने के लिए, जब भगवान् भरोसे ही सब छोड़ दिया तो श्री कृष्ण ही द्रौपदी के के पट्ट बन गए और पटवर्धन कहलाये.
लेकिन चीरहरण रुक जाने पर (चमत्कार के बाद) जब विदुर जी ने धर्म संगत तर्क दिया की द्रौपदी न तो हारी गई थी न ही दुर्योधन की दासी ही है, न ही युधिस्ठर ने उसे दाव पर लगाया है और न ही उसे दास बन जाने पर ऐसा करने का अधिकार था तो सभा में आये राजाओ ने धृतराष्ट्र की भत्स्रना की.
तभी सभा में सियार आकर बोलने लगे जो की कौरवो के अंत का संकेत थे, इसे समझ कर धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को धिक्कारा द्रौपदी को वरदान दिए पांडवो को दस्ता से मुक्त कर सब कुछ उन्हें लौटा दिया. साथ ही युधिस्ठर से कहा की बेटा तुम अपने भाई को माफ़ करना बदला मत लेना.
पांडव चुपचाप अपने राज्य इंद्रप्रस्थ को चल दिए थे, युद्ध की सम्भावना ख़त्म थी...
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